व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> अति प्रभावकारी लोगों की 7 आदतें अति प्रभावकारी लोगों की 7 आदतेंस्टीफन आर. कवी
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लेखक स्टीफ़न आर. कवी व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक समस्याओं को सुलझाने के लिये एक संपूर्ण, एकीकृत, सिद्धांत-केंद्रित दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।...
Ati Prabhavkari Logon Ki Sat Adatein - A Hindi Book - by Stiphan R. Kavi
अति प्रभावकारी लोगों की 7 आदतें में लेखक स्टीफ़न आर. कवी व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक समस्याओं को सुलझाने के लिये एक संपूर्ण, एकीकृत, सिद्धांत-केंद्रित दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। तीक्ष्ण अंतर्दृष्टियों और सटीक प्रसंगों के द्वारा लेखक निष्पक्षता, अखंडता, ईमानदारी और मानवीय गरिमा के साथ जीने का एक क़दम-दर-क़दम मार्ग प्रकट करते हैं। ये वे सिद्धांत हैं, जो हमें परिवर्तन के अनुरूप ढलने की सुरक्षा देते हैं। ये सिद्धांत हमें उस परिवर्तन द्वारा उत्पन्न अवसरों का लाभ लेने की समझ और शक्ति भी प्रदान करते हैं।
‘‘स्टीफ़न आर. कवी की अति प्रभावकारी लोगों की 7 आदतें ने सैटर्न कॉरपोरेशन के संचालक तंत्र और दर्शन के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई है। गुणवत्ता और ग्राहकों के प्रति हमारे समर्पण की जड़े इन्हीं सात आदतों में है।’’
‘‘स्टीफ़न आर. कवी की अति प्रभावकारी लोगों की 7 आदतें ने सैटर्न कॉरपोरेशन के संचालक तंत्र और दर्शन के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई है। गुणवत्ता और ग्राहकों के प्रति हमारे समर्पण की जड़े इन्हीं सात आदतों में है।’’
–स्किप, लेफ़ॉव, प्रेसिडेंट, सैटर्न कॉरपोरेशन /जनरल मोटर्स
‘‘प्रशिक्षण लेने वाले सब लोग कहते हैं कि यह उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ अनुभव है। लोगों का यह मानना है कि 7 आदतों ने उनकी ज़िंदगी बदल दी है और उन्हीं की बदौलत वे व्यक्तिगत और व्यावसायिक प्रगति कर पाए।’’
–केन एम. राड्ज़ीवानोवस्की, ए. टी. एंड टी. स्कूल ऑफ बिज़नेस
अति प्रभावकारी लोगों की सात आदतें की सराहना
‘‘स्टीफ़न कवी ने मानवीय स्थितियों के बारे में प्रशंसनीय पुस्तक लिखी है। यह इतने अच्छे तरीक़े से लिखी गई है, हमारी गहनतम चिंताओं की इतनी गहरी समझ लिये हुए है, हमारे संगठनात्मक और व्यक्तिगत जीवन के लिये इतनी उपयोगी है कि मैं अपने हर परिचित को यह उपहार दूँगा।’’
वारेन बेनिस
ऑन बिकमिंग ए लीडर के लेखक
ऑन बिकमिंग ए लीडर के लेखक
‘‘मैंने व्यक्तिगत प्रभावकारिता में सुधार करने वाले किसी प्रशिक्षण या शिक्षक को नहीं देखा, जिसे इतनी ज़बर्दस्त सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली हो...। इस पुस्तक ने स्टीफ़न के सिद्धांतों के जीवनदर्शन को सुंदरता से व्यक्त किया है। मैं सौचता हूँ कि इसे पढ़कर कोई भी जल्दी ही उस ज़बर्दस्त प्रतिक्रिया को समझ जायेगा, जो मैं और अन्य लोग डॉ. कवी की शिक्षाओं के प्रति करते हैं।’’
जॉन पीपर, प्रेसिडेंट
प्रॉक्टर एंड गैंबल
प्रॉक्टर एंड गैंबल
‘‘स्टीफ़न कवी ‘अमेरिकी सुकरात’ हैं, जो आपके मस्तिष्क के द्वार ‘‘स्थायी चीज़ों’ जैसे जीवनमूल्यों, परिवार, संबंधों तथा संप्रेषण की ओर खोलते हैं।’’
ब्रायन ट्रेसी
साइकोलॉजी ऑफ़ अचीवमेंट के लेखक
साइकोलॉजी ऑफ़ अचीवमेंट के लेखक
‘‘स्टीफ़न आर. कवी की पुस्तक शक्ति, विश्वास और अनुभूति के साथ शिक्षा देती है। इन सिद्धांतों की सामग्री और क्रमबद्धता प्रभावकारी संप्रेषण के लिये नींव तैयार करते हैं। एक शिक्षक के रूप में मेरी लाइब्रेरी में इसका महत्वपूर्ण स्थान होगा।’’
विलियम रोल्फ़ केर
यूटा कमिश्नर आफ़ हायर एज्युकेशन
यूटा कमिश्नर आफ़ हायर एज्युकेशन
अंदर से बाहर की ओर (Inside-Out)
इस पूरी दुनिया में ऐसी कोई वास्तविक श्रेष्ठता नहीं है, जिसे सही जीवनशैली से अलग किया जा सके।
डेविड स्टार जॉर्डन
मैंने 25 साल तक व्यावसायिक, विश्वविद्यालयीन, वैवाहिक और पारिवारिक वातावरण में लोगों के साथ काम किया है। इस दौरान मैं ऐसे बहुत से लोगों के संपर्क में आया हूँ, जिन्होंने बाहरी तौर पर अविश्वसनीय सफलता हासिल की है। इसके बावज़ूद मैंने यह देखा है कि वे आंतरिक तौर पर अपने जीवन से संतुष्ट नहीं हैं। वे व्यक्तिगत सामंजस्य तथा प्रभावकारिता की कमी की वजह से परेशान हैं। वे लोगों के साथ स्वस्थ व मधुर संबंध बनाने के लिये हमेशा संघर्ष करते रहते हैं।
मुझे लगता है कि उन्होंने जो समस्याएँ मुझे बताई हैं, उनमें से कुछ से आप भी परिचित होंगे :
मैंने अपने कैरियर के जो लक्ष्य निर्धारित किये थे, उन्हें मैं हासिल कर चुका हूँ। मुझे व्यावसायिक दृष्टि से अप्रत्याशित सफलता मिली है, लेकिन मैं अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में इस सफलता की क़ीमत चुका रहा हूँ। मेरी पत्नी और बच्चे अब मेरे लिये अजनबी हो चुके हैं। मुझे तो यह भी विश्वास नहीं है कि मैं खुद को जानता हूँ। मैं शायद यह भी नहीं जानता कि मेरे लिये वास्तव में क्या महत्वपूर्ण है। मुझे ख़ुद से पूछना पड़ता है–क्या यह इतना मूल्यवान है कि इसके लिये इतना त्याग किया जाये ?
मैंने डाइटिंग की नई योजना बनाई है–इस साल पाँचवीं बार। मैं जानता हूँ कि मेरा वज़न बढ़ गया है। मैं सचमुच दुबला होना चाहता हूँ। मैं इस विषय पर प्रकाशित होने वाली नई पुस्तकें और लेख नियमित रूप से पढ़ता हूँ। लक्ष्य निर्धारित करता हूँ। सकारात्मक मानसिक नज़रिये की मनोवैज्ञानिक ख़ुराक देकर ख़ुद को प्रोत्साहित करता हूँ कि मैं यह कर सकता हूँ। परंतु मैं नहीं कर पाता कुछ सप्ताह बाद सब कुछ टाँय-टाँय फ़िस्स हो जाता है। मैं ख़ुद से किये गये वायदे को नहीं निभा पाता।
मैंने प्रभावकारी मैनेजमेंट सिखाने वाले कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लिया है। अपने कर्मचारियों से मेरी अपेक्षायें बहुत ज़्यादा हैं। मैं उनके साथ मित्रतापूर्ण तथा सही व्यवहार करने की लगातार कोशिश करता हूँ। परंतु मुझे नहीं लगता कि वे मेरे प्रति वफ़ादार हैं। मुझे महसूस होता है कि अगर मैं किसी दिन बीमार पड़ जाऊँ और ऑफ़िस न आऊँ, तो वे सारा दिन वाटर कूलर के आस-पास खड़े होकर गपशप करते रहेंगे। मैं उन्हें आत्मनिर्भर और ज़िम्मेदार क्यों नहीं बना पाता—या इस तरह के कर्मचारी क्यों नहीं ढूँढ़ पाता ?
मेरा किशोर पुत्र विद्रोही स्वभाव का है। वह नशीले पदार्थों का आदी हो चुका है। मैंने उसे समझाने की लाख कोशिश की, परंतु वह मेरी सुनता ही नहीं है। मैं क्या करूँ ?
करने के लिये बहुत काम है, पर समय बहुत कम है। मैं सप्ताह में सातों दिन, हर दिन, हर पल दबाव और तनाव में जीता हूँ। मैं टाइम मैनेजमेंट सेमिनारों में गया हूँ और मैंने समय के प्रबंधन की आधा दर्जन योजनाओं को आज़माकर भी देखा है। हालाँकि मुझे कुछ लाभ तो मिला, परंतु अब भी मुझे यह एहसास नहीं होता कि मैं उतना सुखद, सफल और शांतिपूर्ण जीवन जी रहा हूँ, जितना मैं जीना चाहता हूँ।
मैं अपने बच्चों को परिश्रम का महत्व सिखाना चाहता हूँ। परंतु उनसे कोई भी काम करवाने के लिये मुझे हर क़दम पर निगरानी रखना पड़ती है...और हर क़दम पर उनकी शिकायतें भी सुनना पड़ती हैं। इसके बजाय उस काम को खुद करना ज्यादा आसान होता है। बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी अपना काम क्यों नहीं करते हैं ? उन्हें बार-बार टोकना क्यों पड़ता है ?
मैं व्यक्त हूँ–सचमुच व्यस्त। परंतु कई बार मैं सोचता हूँ कि मैं जो कर रहा हूँ क्या वह वास्तव में महत्वपूर्ण है। क्या उससे लंबे समय में कोई फ़र्क़ पड़ेगा ? मैं वाक़ई यह सोचना चाहूँगा कि मेरे जीवन का कोई अर्थ था, इस दुनिया में मेरा आना सार्थक हुआ और मेरे कारण कोई फ़र्क़ पड़ा।
मैं जब अपने मित्रों या रिश्तेदारों को सफल या प्रतिष्ठित होते देखता हूँ, तो मैं मुस्कराकर उन्हें बधाई देता हूँ। परंतु भीतर ही भीतर मैं जल-भुन जाता हूँ। मुझे ऐसा क्यों महसूस होता है ?
मेरा व्यक्तित्व बहुत सशक्त है। मैं जानता हूँ कि मैं किसी भी चर्चा में मनचाहा परिणाम हालिस कर सकता हूँ। अधिकांश बार तो मैं दूसरों को इस तरह प्रभावित कर सकता हूँ, ताकि वे मेरा मनचाहा समाधान सुझायें। मैं हर स्थिति पर अच्छी तरह सोच-विचार करता हूँ और मुझे लगता है कि मेरे मन में आने वाले विचार आम तौर पर सबके लिये सर्वोत्तम होते हैं। परंतु फिर भी मैं बेचैन रहता हूँ। मुझे हमेशा यहीं चिंता सताती रहती है कि दूसरे लोग मेरे विचारों और मेरे बारे में न जाने क्या सोचते होगे।
मेरा वैवाहिक जीवन घिसट रहा है। हम लड़ते-झगड़ते तो नहीं हैं, परंतु हमारे बीच का प्रेम अब मर चुका है। हमने वैवाहिक परामर्श लिया, बहुत से तरीक़े आज़माकर देखे, परंतु कोई फ़ायदा नहीं हुआ। हम अपने भीतर वह भावना फिर से नहीं जगा पा रहे हैं, जो पहले कभी थी।
ये समस्याएँ गहरी हैं और दर्दनाक भी। और ये ऐसी समस्याएँ हैं, जिन्हें तुरत-फुरत (quick fix) उपायों से नहीं सुलझाया जा सकता।
कुछ साल पहले मैं और मेरी पत्नी सैन्ड्रा भी इसी तरह की समस्या से जूझ रहे थे। हमारे एक बेटे को स्कूल में बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। वह पढ़ाई-लिखाई में कमज़ोर था। टेस्ट में अच्छे नंबर लाने की बात तो छोड़ ही दें, उसे तो यह भी समझ में नहीं आता था कि प्रश्नपत्र में दिये गये निर्देशों का पालन कैसे किया जाये। सामाजिक दृष्टि से भी वह अपरिपक्व था और उसकी वजह से हमें अक्सर लज्जित होना पड़ता था। खेलकूद के लिहाज़ से वह छोटा और दुबला तो था ही, उसमें मानसिक तालमेल की कमी भी थी। उदाहरण के लिये, बेसबॉल खेलते समय कई बार तो पिचर की गेंद पास आने से पहले ही वह अपना बल्ला घुमा देता था। सब बच्चे उसकी हँसी उड़ाते थे।
मेरे और सेन्ड्रा के मन में उसकी मदद करने की प्रबल इच्छा थी। हमें यह एहसास था कि अगर ‘‘सफलता’’ जीवन के किसी क्षेत्र में सचमुच महत्वपूर्ण है, तो यह माता-पिता की भूमिका में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसलियें हमने अपने बेटे के प्रति अपने नज़रिये और व्यवहार को भी सुधारने की कोशिश की। इसके साथ ही हमने अपने नज़रिये और व्यवहार को भी सुधारने की कोशिश की। हमने सकारात्मक सोच की तकनीकों का प्रयोग करके उसे मनोवैज्ञानिक रूप से प्रोत्साहित करने की कोशिश की। ‘‘शाबाश, बेटे ! तुम यह काम कर सकते हो ! हम जानते हैं कि तुम यह कर सकते हो। बल्ले पर अपने हाथ थोड़े ऊपर रखो और नज़रें गेंद पर जमाये रखो। जब तक गेंद क़रीब न आ जाये, तब तक बल्ला मत घुमाओ।’’ अगर उसमें थोड़ा सा भी सुधार दिखता था, तो हम उसका उत्साह बढ़ाने के लिये बहुत ज़्यादा तारीफ़ करते थे। ‘‘बहुत बढ़िया बेटे, ऐसे ही करते रहो।’’
जब दूसरे बच्चे उसकी हँसी उड़ाते थे, तो हम उन्हें डाँट देते थे, ‘‘उसे मत चिढ़ाओ। उसे अकेला छोड़ दो। वह अभी सीख रहा है।’’ इस पर हमारा बेटा रोने लगता था तथा निराश होकर कहता था कि वह कभी अच्छी तरह नहीं खेल पायेगा और वैसे भी उसे बेसबॉल पसंद नहीं है।
हमने बहुत कोशिश की, परंतु जब स्थिति में ख़ास सुधार नहीं हुआ, तो हम सचमुच चिंतित हो गये। हमें साफ़ नज़र आ रहा था कि इसका उसके आत्म-सम्मान पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा था। हमने उसे प्रोत्साहित करने, उसकी मदद करने और सकारात्मक रहने का प्रयास किया। बहरहाल, जब हम बार-बार असफल हुए, तो आख़िरकार हमने पीछे हटकर स्थिति को अलग दृष्टिकोण से देखने का निर्णय लिया।
उस समय मैं देश भर के कई प्रतिष्ठित संगठनों में नेतृत्व विकास संबंधी प्रशिक्षण दे रहा था। मैं आई. बी. एम. के एक्ज़ीक्यूटिव डेवलपमेंट प्रोग्राम के प्रशिक्षणार्थियों के लिये संप्रेषण (communication) और अनुभूति (perception) विषय पर द्वैमासिक कार्यक्रम तैयार कर रहा था।
जब मैंने इन कार्यक्रमों को तैयार करने के लिये शोध किया, तो मेरी दिलचस्पी ख़ास तौर पर इस विषय में जाग्रत हुई कि हमारी अनुभूतियाँ किस तरह विकसित होती हैं, वे हमारे देखने के नज़रिये को किस तरह निर्धारित करती हैं और हमारा देखने का नज़रिया किस तरह हमारे व्यवहार को निर्धारित करता है। जब मैंने आशावादिता के सिद्धांत और ‘‘पिग्मेलियन प्रभाव’’ (स्वयं पूर्ण होने वाली आशाओं) का अध्ययन किया, तो मुझे यह समझ में आया कि हमारी अनुभूतियाँ कितनी गहराई में स्थित होती हैं। इसने मुझे सिखाया कि हमें दुनिया को देखने के साथ-साथ अपने उस लेंस पर भी ग़ौर करना चाहिये, जिसके द्वारा हम दुनिया को देखते हैं। इसने मुझे सिखाया कि लेंस ही दरअसल यह तय करता है कि हम दुनिया को किस रूप में देखते हैं।
जिन अवधारणाओं को मैं आई. बी. एम. में सिखा रहा था, उनके परिप्रेक्ष्य में मैंने और सैन्ड्रा ने अपनी स्थिति का अवलोकन किया।
मुझे लगता है कि उन्होंने जो समस्याएँ मुझे बताई हैं, उनमें से कुछ से आप भी परिचित होंगे :
मैंने अपने कैरियर के जो लक्ष्य निर्धारित किये थे, उन्हें मैं हासिल कर चुका हूँ। मुझे व्यावसायिक दृष्टि से अप्रत्याशित सफलता मिली है, लेकिन मैं अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में इस सफलता की क़ीमत चुका रहा हूँ। मेरी पत्नी और बच्चे अब मेरे लिये अजनबी हो चुके हैं। मुझे तो यह भी विश्वास नहीं है कि मैं खुद को जानता हूँ। मैं शायद यह भी नहीं जानता कि मेरे लिये वास्तव में क्या महत्वपूर्ण है। मुझे ख़ुद से पूछना पड़ता है–क्या यह इतना मूल्यवान है कि इसके लिये इतना त्याग किया जाये ?
मैंने डाइटिंग की नई योजना बनाई है–इस साल पाँचवीं बार। मैं जानता हूँ कि मेरा वज़न बढ़ गया है। मैं सचमुच दुबला होना चाहता हूँ। मैं इस विषय पर प्रकाशित होने वाली नई पुस्तकें और लेख नियमित रूप से पढ़ता हूँ। लक्ष्य निर्धारित करता हूँ। सकारात्मक मानसिक नज़रिये की मनोवैज्ञानिक ख़ुराक देकर ख़ुद को प्रोत्साहित करता हूँ कि मैं यह कर सकता हूँ। परंतु मैं नहीं कर पाता कुछ सप्ताह बाद सब कुछ टाँय-टाँय फ़िस्स हो जाता है। मैं ख़ुद से किये गये वायदे को नहीं निभा पाता।
मैंने प्रभावकारी मैनेजमेंट सिखाने वाले कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लिया है। अपने कर्मचारियों से मेरी अपेक्षायें बहुत ज़्यादा हैं। मैं उनके साथ मित्रतापूर्ण तथा सही व्यवहार करने की लगातार कोशिश करता हूँ। परंतु मुझे नहीं लगता कि वे मेरे प्रति वफ़ादार हैं। मुझे महसूस होता है कि अगर मैं किसी दिन बीमार पड़ जाऊँ और ऑफ़िस न आऊँ, तो वे सारा दिन वाटर कूलर के आस-पास खड़े होकर गपशप करते रहेंगे। मैं उन्हें आत्मनिर्भर और ज़िम्मेदार क्यों नहीं बना पाता—या इस तरह के कर्मचारी क्यों नहीं ढूँढ़ पाता ?
मेरा किशोर पुत्र विद्रोही स्वभाव का है। वह नशीले पदार्थों का आदी हो चुका है। मैंने उसे समझाने की लाख कोशिश की, परंतु वह मेरी सुनता ही नहीं है। मैं क्या करूँ ?
करने के लिये बहुत काम है, पर समय बहुत कम है। मैं सप्ताह में सातों दिन, हर दिन, हर पल दबाव और तनाव में जीता हूँ। मैं टाइम मैनेजमेंट सेमिनारों में गया हूँ और मैंने समय के प्रबंधन की आधा दर्जन योजनाओं को आज़माकर भी देखा है। हालाँकि मुझे कुछ लाभ तो मिला, परंतु अब भी मुझे यह एहसास नहीं होता कि मैं उतना सुखद, सफल और शांतिपूर्ण जीवन जी रहा हूँ, जितना मैं जीना चाहता हूँ।
मैं अपने बच्चों को परिश्रम का महत्व सिखाना चाहता हूँ। परंतु उनसे कोई भी काम करवाने के लिये मुझे हर क़दम पर निगरानी रखना पड़ती है...और हर क़दम पर उनकी शिकायतें भी सुनना पड़ती हैं। इसके बजाय उस काम को खुद करना ज्यादा आसान होता है। बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी अपना काम क्यों नहीं करते हैं ? उन्हें बार-बार टोकना क्यों पड़ता है ?
मैं व्यक्त हूँ–सचमुच व्यस्त। परंतु कई बार मैं सोचता हूँ कि मैं जो कर रहा हूँ क्या वह वास्तव में महत्वपूर्ण है। क्या उससे लंबे समय में कोई फ़र्क़ पड़ेगा ? मैं वाक़ई यह सोचना चाहूँगा कि मेरे जीवन का कोई अर्थ था, इस दुनिया में मेरा आना सार्थक हुआ और मेरे कारण कोई फ़र्क़ पड़ा।
मैं जब अपने मित्रों या रिश्तेदारों को सफल या प्रतिष्ठित होते देखता हूँ, तो मैं मुस्कराकर उन्हें बधाई देता हूँ। परंतु भीतर ही भीतर मैं जल-भुन जाता हूँ। मुझे ऐसा क्यों महसूस होता है ?
मेरा व्यक्तित्व बहुत सशक्त है। मैं जानता हूँ कि मैं किसी भी चर्चा में मनचाहा परिणाम हालिस कर सकता हूँ। अधिकांश बार तो मैं दूसरों को इस तरह प्रभावित कर सकता हूँ, ताकि वे मेरा मनचाहा समाधान सुझायें। मैं हर स्थिति पर अच्छी तरह सोच-विचार करता हूँ और मुझे लगता है कि मेरे मन में आने वाले विचार आम तौर पर सबके लिये सर्वोत्तम होते हैं। परंतु फिर भी मैं बेचैन रहता हूँ। मुझे हमेशा यहीं चिंता सताती रहती है कि दूसरे लोग मेरे विचारों और मेरे बारे में न जाने क्या सोचते होगे।
मेरा वैवाहिक जीवन घिसट रहा है। हम लड़ते-झगड़ते तो नहीं हैं, परंतु हमारे बीच का प्रेम अब मर चुका है। हमने वैवाहिक परामर्श लिया, बहुत से तरीक़े आज़माकर देखे, परंतु कोई फ़ायदा नहीं हुआ। हम अपने भीतर वह भावना फिर से नहीं जगा पा रहे हैं, जो पहले कभी थी।
ये समस्याएँ गहरी हैं और दर्दनाक भी। और ये ऐसी समस्याएँ हैं, जिन्हें तुरत-फुरत (quick fix) उपायों से नहीं सुलझाया जा सकता।
कुछ साल पहले मैं और मेरी पत्नी सैन्ड्रा भी इसी तरह की समस्या से जूझ रहे थे। हमारे एक बेटे को स्कूल में बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। वह पढ़ाई-लिखाई में कमज़ोर था। टेस्ट में अच्छे नंबर लाने की बात तो छोड़ ही दें, उसे तो यह भी समझ में नहीं आता था कि प्रश्नपत्र में दिये गये निर्देशों का पालन कैसे किया जाये। सामाजिक दृष्टि से भी वह अपरिपक्व था और उसकी वजह से हमें अक्सर लज्जित होना पड़ता था। खेलकूद के लिहाज़ से वह छोटा और दुबला तो था ही, उसमें मानसिक तालमेल की कमी भी थी। उदाहरण के लिये, बेसबॉल खेलते समय कई बार तो पिचर की गेंद पास आने से पहले ही वह अपना बल्ला घुमा देता था। सब बच्चे उसकी हँसी उड़ाते थे।
मेरे और सेन्ड्रा के मन में उसकी मदद करने की प्रबल इच्छा थी। हमें यह एहसास था कि अगर ‘‘सफलता’’ जीवन के किसी क्षेत्र में सचमुच महत्वपूर्ण है, तो यह माता-पिता की भूमिका में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसलियें हमने अपने बेटे के प्रति अपने नज़रिये और व्यवहार को भी सुधारने की कोशिश की। इसके साथ ही हमने अपने नज़रिये और व्यवहार को भी सुधारने की कोशिश की। हमने सकारात्मक सोच की तकनीकों का प्रयोग करके उसे मनोवैज्ञानिक रूप से प्रोत्साहित करने की कोशिश की। ‘‘शाबाश, बेटे ! तुम यह काम कर सकते हो ! हम जानते हैं कि तुम यह कर सकते हो। बल्ले पर अपने हाथ थोड़े ऊपर रखो और नज़रें गेंद पर जमाये रखो। जब तक गेंद क़रीब न आ जाये, तब तक बल्ला मत घुमाओ।’’ अगर उसमें थोड़ा सा भी सुधार दिखता था, तो हम उसका उत्साह बढ़ाने के लिये बहुत ज़्यादा तारीफ़ करते थे। ‘‘बहुत बढ़िया बेटे, ऐसे ही करते रहो।’’
जब दूसरे बच्चे उसकी हँसी उड़ाते थे, तो हम उन्हें डाँट देते थे, ‘‘उसे मत चिढ़ाओ। उसे अकेला छोड़ दो। वह अभी सीख रहा है।’’ इस पर हमारा बेटा रोने लगता था तथा निराश होकर कहता था कि वह कभी अच्छी तरह नहीं खेल पायेगा और वैसे भी उसे बेसबॉल पसंद नहीं है।
हमने बहुत कोशिश की, परंतु जब स्थिति में ख़ास सुधार नहीं हुआ, तो हम सचमुच चिंतित हो गये। हमें साफ़ नज़र आ रहा था कि इसका उसके आत्म-सम्मान पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा था। हमने उसे प्रोत्साहित करने, उसकी मदद करने और सकारात्मक रहने का प्रयास किया। बहरहाल, जब हम बार-बार असफल हुए, तो आख़िरकार हमने पीछे हटकर स्थिति को अलग दृष्टिकोण से देखने का निर्णय लिया।
उस समय मैं देश भर के कई प्रतिष्ठित संगठनों में नेतृत्व विकास संबंधी प्रशिक्षण दे रहा था। मैं आई. बी. एम. के एक्ज़ीक्यूटिव डेवलपमेंट प्रोग्राम के प्रशिक्षणार्थियों के लिये संप्रेषण (communication) और अनुभूति (perception) विषय पर द्वैमासिक कार्यक्रम तैयार कर रहा था।
जब मैंने इन कार्यक्रमों को तैयार करने के लिये शोध किया, तो मेरी दिलचस्पी ख़ास तौर पर इस विषय में जाग्रत हुई कि हमारी अनुभूतियाँ किस तरह विकसित होती हैं, वे हमारे देखने के नज़रिये को किस तरह निर्धारित करती हैं और हमारा देखने का नज़रिया किस तरह हमारे व्यवहार को निर्धारित करता है। जब मैंने आशावादिता के सिद्धांत और ‘‘पिग्मेलियन प्रभाव’’ (स्वयं पूर्ण होने वाली आशाओं) का अध्ययन किया, तो मुझे यह समझ में आया कि हमारी अनुभूतियाँ कितनी गहराई में स्थित होती हैं। इसने मुझे सिखाया कि हमें दुनिया को देखने के साथ-साथ अपने उस लेंस पर भी ग़ौर करना चाहिये, जिसके द्वारा हम दुनिया को देखते हैं। इसने मुझे सिखाया कि लेंस ही दरअसल यह तय करता है कि हम दुनिया को किस रूप में देखते हैं।
जिन अवधारणाओं को मैं आई. बी. एम. में सिखा रहा था, उनके परिप्रेक्ष्य में मैंने और सैन्ड्रा ने अपनी स्थिति का अवलोकन किया।
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